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Wednesday 11 September 2019

​​मंदिरों की तीन मुख्य शैलियाँ- 


भारतीय स्थापत्य कला व शिल्पशास्त्रों के अनुसार मंदिरों विशेषत: हिंदू मंदिरों की तीन मुख्य शैलियाँ हैं -
-नागर शैली : मुख्यत: उत्तर भारतीय शैली
-द्रविड़ शैली : मुख्यत: दक्षिण भारतीय शैली
-वेसर शैली : नागर-द्रविड़ मिश्रित मुख्यत: दक्षिण-पश्चिमी भारतीय शैली

पर यह वर्गीकरण भी बहुत स्थूल है। समय व संस्कृति भेद के साथ इनमें भी अनेक भेद व मिश्रण हैं । इनके अतिरिक्त हिमालय में हिमाचल, उत्तराखंड में अपनी पहाड़ी शैली प्रमुख है, तो पूर्वोत्तर में बहुत अलग पूर्वोत्तरीय शैली. इसी प्रकार राजस्थान में अनेक मध्यकालीन मंदिरों में राजपूताना शैली का प्राचुर्य या मिश्रण है, तो आधुनिक काल में ग्रीक-रोमन या यूरोपीय शैली का भी मिश्रण मिल जाता है।

नागर शैली- 

'नागर' शब्द नगर से बना है। सर्वप्रथम नगर में निर्माण होने के कारण इन्हे नागर की संज्ञा प्रदान की गई । नागर शैली की बहुलता मुख्यतः उत्तर व मध्य भारतीय परिक्षेत्र में है । नागर शैली का प्रसार हिमालय से लेकर विंध्य पर्वत माला तक विशेषत: नर्मदा नदी के उत्तरी क्षेत्र तक देखा जा सकता है। यह कहीं-कहीं अपनी सीमाओं से आगे भी विस्तारित हो गयी है ।
वास्तुशास्त्र के अनुसार नागर शैली के मंदिरों की पहचान आधार से लेकर सर्वोच्च अंश तक इसका चतुष्कोण होना है । विकसित नागर मंदिरों में गर्भगृह, उसके समक्ष क्रमशः अन्तराल, मण्डप तथा अर्द्धमण्डप प्राप्त होते हैं। एक ही अक्ष पर एक दूसरे से संलग्न इन भागों का निर्माण किया जाता है।
नागर वास्तुकला में वर्गाकार योजना के आरंभ होते ही दोनों कोनों पर कुछ उभरा हुआ भाग प्रकट हो जाता है जिसे 'अस्त' कहते हैं। इसमें मूर्ति के गर्भगृह के ऊपर पर्वत-शृंग जैसे शिखर की प्रधानता पाई जाती है। कहीं चौड़ी समतल छत के ऊपर उठती हुई शिखा सी भी दिख सकती है। माना जाता है कि यह शिखर कला उत्तर भारत में सातवीं शताब्दी के पश्चात् अधिक विकसित हुई. कई मंदिरों में शिखर के स्वरूप में ही गर्भगृह तक को समाहित कर लिया गया है।

द्रविड़ शैली- 

यह शैली दक्षिण भारत में विकसित होने के कारण द्रविड़ शैली कहलाती है। तमिलनाडु के अधिकांश मंदिर इसी श्रेणी के हैं। इसमें मंदिर का आधार भाग वर्गाकार होता है तथा गर्भगृह के ऊपर का शिखर भाग प्रिज्मवत् या पिरामिडनुमा होता है, जिसमें क्षैतिज विभाजन लिए अनेक मंजिलें होती हैं। शिखर के शीर्ष भाग पर आमलक व कलश की जगह स्तूपिका होते हैं। इस शैली के मंदिरों की प्रमुख विशेषता यह है कि ये काफी ऊँचे तथा विशाल प्रांगण से घिरे होते हैं। प्रांगण में छोटे-बड़े अनेक मंदिर, कक्ष तथा जलकुण्ड होते हैं। परिसर में कल्याणी या पुष्करिणी के रूप में जलाशय होता है। प्रागंण का मुख्य प्रवेश द्वार 'गोपुरम्' कहलाता है। प्रायः मंदिर प्रांगण में विशाल दीप स्तंभ व ध्वज स्तंभ का भी विधान होता है.

वेसर शैली- 

नागर और द्रविड़ शैली के मिश्रित रूप को वेसर शैली की संज्ञा दी गई है। वेसर शब्द कन्नड़ भाषा के 'वेशर' शब्द से बना है, जिसका अर्थ है- रूप. नवीन प्रकार की रूप-आकृति होने के कारण इसे वेशर शैली कहा गया, जो भाषांतर होने पर वेसर या बेसर बन गया.
यह विन्यास में द्रविड़ शैली का तथा रूप में नागर जैसा होता है। इस शैली के मंदिरों की संख्या सबसे कम है. इस शैली के मंदिर विन्ध्य पर्वतमाला से कृष्णा नदी के बीच निर्मित हैं। कर्नाटक व महाराष्ट्र इन मंदिरों के केंद्र माने जाते हैं। विशेषत: राष्ट्रकूट, होयसल व चालुक्य वंशीय कतिपय मंदिर इसी शैली में हैं।
उक्त शैलियों के सामान्य अंतर को हम इस तालिका व चित्र में भी देख सकते हैं।