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Thursday 12 September 2019


मध्यकालीन इतिहास: मैसूर का युद्धहैदर अली


हैदर अली के नेतृत्व में दक्षिण भारत की राजनीति में मैसूर राज्य की प्रसिद्धि में वृद्धि हुई।
सन् 1761 में वे मैसूर के वास्तविक शासक बन गए थे।
कर्नाटक और हैदराबाद की युद्ध में सफलता, दक्षिण में अंग्रेजों और फ्रांसिसियों का संघर्ष तथा पानीपत के तृतीय युद्ध (1761) में मराठों की हार ने मैसूर में उन्हें अपना सम्राज्य स्थापित करने में मदद की।
हैदर अली सन् 1764 में मराठा पेशवा माधव राव द्वारा पराजित हुए और उन्‍हें सन् 1765 में एक संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया।
उन्होंने अपने क्षेत्र का एक हिस्सा उन्हें सौंप दिया और प्रतिवर्ष अठाईस लाख रूपए का भुगतान करने पर भी सहमत हुए।
हैदराबाद के निजाम ने अकेले कार्य नहीं किया बल्कि उन्होंने अंग्रेजों के साथ लीग में कार्य करना पसंद किया जिसके परिणामस्वरूप पहला आंग्ल-मैसूर युद्ध हुआ।
टीपू सुल्तान
टीपू सुल्तान ने तीसरे और चौथे मैसूर युद्ध में ब्रिटिशों के खिलाफ युद्ध किया।
टिपू ने प्रशासनिक व्यवस्था में बड़े बदलाव किए।
इन्होंने विदेशी विशेषज्ञों को लाकर आधुनिक उद्योग आरंभ किए तथा कईं उद्योगों के लिए राज्य समर्थन का विस्तार किया।
इन्होंने विदेश व्यापारिक संबंधों की स्थापना के लिए कईं देशों में अपने राजदूतों को भेजा। इन्होंने मुद्रा की नईं प्रणाली, वज़न के नए मापदंड और नए कैलेंडर लागू किए।
टीपू सुल्तान ने यूरोपीय ढ़ाचों के आधार पर पैदल सेना को संगठित किया और आधुनिक नौसेना का निर्माण करने का प्रयास किया।
श्रीरंगपट्टनम में 'स्वतंत्रता का वृक्ष' लगाया और जैकोबिन क्लब का सदस्य बन गया।
मैसूर युद्ध
पहला आंग्ल - मैसूर युद्ध (1767-69)- मद्रास की संधि
दूसरा आंग्ल - मैसूर युद्ध (1780-1784) - मंगलौर की संधि
तीसरा आंग्ल - मैसूर युद्ध (1789-1792) - श्रीरंगपट्टनम की संधि
चौथा आंग्ल - मैसूर युद्ध (1799)

पहला आंग्ल-मैसूर युद्ध (1767-69):

इस युद्ध का मुख्य कारण ब्रिटिश को कर्नाटक से दूर करना और अंत में भारत से निकाल देने की हैदर की महत्वाकांक्षा थी और हैदर द्वारा उन्हें खतरा होने की अनुभूति हो गई थी।
ब्रिटिश, निजाम और मराठों द्वारा हैदर के खिलाफ एक त्रिपक्षीय गठबंधन का गठन किया गया था।
हैदर गठबंधन को तोड़ने में सफल रहा और अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। युद्ध ब्रिटिश की हार के साथ समाप्त हुआ।
एक-दूसरे के राज्यों में आपसी बहाली के आधार पर सन् 1769 में मद्रास की अपमानजनक संधि के समापन के साथ ही मद्रास सरकार में समस्याएं जन्म लेने लगी और दोनों पक्षों के बीच रक्षात्मक संधि हुई, जिसके अंतर्गत यह तय हुआ कि अन्य शक्ति द्वारा हमला किए जाने पर अंग्रेज हैदर अली की सहायता करने के लिए बाध्य होंगे।
मद्रास की संधि: इस संधि पर हैदर अली और कंपनी के सहयोगी दलों, तंजौर के राजा और मालाबार शासक द्वारा हस्ताक्षर किए गए।

दूसरा आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-1784)

हैदर अली और अंग्रेजों की कंपनी के बीच हुई सन् 1769 की संधि विवाद का रुप अधिक साबित हुई और सन् 1771 में मराठों द्वारा मैसूर पर किए गए आक्रमण के दौरान अंग्रेजों द्वारा उनकी सहायता नहीं करने पर हैदर अली ने रक्षात्मक संधि की शर्तों का कंपनी द्वारा पालन न करने का आरोप लगाया।
हैदर ने फ्रांसिसियों को अंग्रेजों की तुलना में अधिक सहयोगी पाया। इसके अतिरिक्त, सन् 1778 में भारत में अंग्रेजों ने माहे बंदरगाह सहित फ्रांसिसी बस्तियों पर कब्जा कर लिया जो कि आपूर्ति के प्रवेश के लिए हैदर अली हेतु बहुत महत्वपूर्ण थीं।
हैदर अली ने माहे बंदरगाह पर कब्जा करने की कोशिश की लेकिन सब व्यर्थ रहा।
इन्होंने अपने सामान्‍य शत्रु – अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ निजाम और मराठों के साथ मिलकर एक संयुक्त मोर्चे की व्‍यवस्‍था की। युद्ध 1780-1784 तक चला।
लेकिन उनकी मृत्यु सन् 1782 में हो गई और उनके बेटे टीपू सुल्तान ने राजपाठ संभाल लिया।
टीपू ने एक ओर वर्ष तक युद्ध जारी रखा लेकिन पूर्ण सफलता दोनों पक्षों को नहीं मिल पाई।
युद्ध से शिथिल दोनों पक्षों ने मंगलौर की शांति संधि संपन्न की।
इस संधि से यह निर्णय लिया गया कि अंग्रेज टीपू के श्रीरंगपट्टनम लौटा देंगे और टीपू अंग्रेजों को बंदुर का किला सौंप देगा।
मंगलौर की संधि : दोनों पक्ष संपत्ति की आपसी बहाली (अंबोर्गूर और सतगुर के किलों को छोड़कर) के लिए सहमत हुए और टीपू ने वचन दिया कि भविष्य में कर्नाटक पर कोई भी दावा नहीं करेगा। टीपू युद्ध के सभी बंदियों को रिहा करने के लिए राजी हो गए और उन्हें सन् 1779 तक कालीकट में कारखने तथा कंपनी द्वारा प्राप्‍त विशेषाधिकारों को पुनर्स्थापित करना था।

तीसरा आंग्ल-मैसूर युद्ध (1789-1792)

सन् 1789 में टीपू सुल्तान और अंग्रेजों के बीच युद्ध आरंभ हुआ और 1792 में टीपू की पराजय पर समाप्त हुआ।
यद्यपि, टीपू ने अत्यंत बहादुरी से युद्ध किया लेकिन गवर्नर जनरल लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने मराठों, निजाम और त्रावणकोर तथा कूर्ग के शासकों पर जीत हासिल कर टीपू को युद्ध के मैदान में अकेला कर अपनी कूटनीति के माध्यम से उसे युद्ध में पराजित कर दिया।
इस युद्ध ने फिर से यह एहसास दिलाया कि अस्थायी लाभों हेतु भारतीय शक्तियों द्वारा अन्य भारतीय शक्तियों के खिलाफ विदेशियों को सम्मिलित करने की दूर-दृष्टि कमजोर थी।
तीसरा मैसूर युद्ध मार्च 1792 में श्रीरंगापट्टनम की संधि से समाप्त हुआ।
श्रीरंगापट्टनम की संधि: इस संधि के परिणामस्वरूप अंग्रेजों को मैसूर क्षेत्र का लगभग आधा हिस्सा सौंप दिया गया।
टीपू को- तीन करोड़ रुपये से अधिक की युद्ध क्षतिपूर्ति का भी भुगतान करना पड़ा।

चौथा आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799)

तीसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध में हार के साथ टीपू बदले की भावना से जल रहा था।
वह अपने राज्य को वापस पाना चाहता था और इस उद्देश्य हेतु इसने फ्रांसिसियों और काबुल के ज़मान शाह के साथ वार्ता की।
टीपू अपने सहयोगियों को अंग्रेजों से मुक्त कराना चाहता था।
लॉर्ड वेलेजली ने निजाम के साथ सहायक गठबंधन करने के बाद टीपू सुल्तान को भी उक्त गठबंधन को स्वीकार करने के लिए कहा लेकिन टीपू ने इनकार कर दिया।
मैसूर पर दो तरफ से हमला किया गया।
मैसूर के पूर्वी छोर से आर्थुर वेलेजली के अधीन निजाम के सहायक बल द्वारा समर्थित जनरल हेरिस के तहत मुख्य सेना ने हमला किया जबकि एक दूसरी सेना मुंबई से आगे बढ़ रही थी।
टीपू सर्वप्रथम बम्बई की सेना से हारा और बाद में मल्लावली में जनरल हेरिस की सेना से हार गया। टीपू बहादुरी से लड़ते हुए मारा गया।
उनके परिवार के सदस्यों को वेल्लोर में रखा गया था।
मैसूर के गद्दी पर पूर्व शाही मैसूर परिवार के एक लड़के को बिठाया गया और सहायक गठबंधन लागू किया गया।
इस प्रकार चौथे मैसूर युद्ध ने मैसूर राज्य को नष्ट कर दिया जिस पर हैदर अली ने 33 वर्षों तक शासन किया था।

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